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पृष्ठ:रसकलस.djvu/३७४

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१२५ नायिका के भेद मैं सवैया- दुख आपनो कासौ कहाँ सजनी सदा साथ लगी तो उपाधै रही । सवकी सब भॉति रही सहतै तवहूं रुचि तो पल आधे रही । कव प्यार कियो कपटी 'हरिऔध' लगी नित ही यह व्याध रही। मुखवोलन को हौं सदा तरसी जिय सूधि चित्तौन की साधे रही ॥२॥ कान ए का न करें फिर क्यो सुनि तानन ही इन वानि बिगारी । मोहि गयो मन-मोहन पै तो भई तवहूँ मन सों मन-वारी । पै हमें बूझि परि ना अजौं 'हरिऔध' की सौं बतिया यह न्यारी । बावरी कैसे रॅगी रंग लाल में मो अखियान की पूतरी-कारी ॥४॥ कल कानि रमी करि कौन कला ललना-कुल आकुल-प्रानन 'हरिऔध' नयो रस काने भर यो रसिया के अलौकिक-गानन मैं । किन नाई सुधा वसुधा-तल की मुरली की मनोहर-तानन मैं अलि मोहनी आनि कहाँ ते बसी मनमोहन मोहन-आनन मैं ||शा दुख-बारि विमोचत नैन रहैं अहै चैन न मैन के बानन मैं । पथ-प्रेम को छेम भरो है नहीं है नेम न नेह-निदानन मैं । 'हरिऔध' है योग वियोग-सनो अहै छोह नहीं छविमानन मैं चतुराइन की चरचा है कहा अहै चूक दोहा-- हिलि-मिलि वे चलि जात हैं ए हग रहहिं विसूरि । नैननहूँ को देखियत धूरि ।। ७॥ मो नैनन वेलमाइ ए नैन करहि उतपात। का अजगुत की वात जो जाति जाति मिली जात ।। ८ ।। चाह-भरी-अखियान ते हम चितवत तुव ओर। पै न चूकि चितयो कवौ तू एरे चित-चोर ।। ६ ।। भरी चतुरानन मैं ॥६॥ नैनन पारत