पृष्ठ:रसकलस.djvu/३७८

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१२६ नायिका के भेद 'हरिऔध' मोरि मोरि भौहैं जोरि जोरि ग चोरि चोरि चितहूँ हमारो ललचाइये। मंजुल-रदनवारो मुद के सदनवारो मदन-कदनवारो वदन दिखाइये ॥१॥ काको सुत कैसी छवि धारत बसन कैसे कैसी बानी बोलि को पियूख बरसावै है। जानत जुगुत कैसी मोहत कहाँ धौं करि मंद मुसुकान काकी मन अपनावै है। 'हरिऔध' की सौं कही मानु चलु देखें नेक काको रूप-कामिनी को वावरी बना है। काके वस ब्रज की विलासिनी भई हैं वीर कौन बनमाली वन बाँसुरी बजावै है ॥२॥ सवैया- हम कैसी करें कित को चलि जायें महा दुख मैं मैं पारती हैं हरिकै छल सों सिगरी कुलकानि बिचारन हूँ को बिगारती हैं। 'हरिऔध' न मानती हैं छनहूँ कवौं सूघेहूँ नाहिँ निहारती हैं। यह रावरी नेह-मयी अखियाँ हमैं बावरी सी किये डारती हैं॥३॥ साँझ सकारे मया करिकै कबहूँ गुरु लोगन के अनदेखे । आपनी या छबि मैन-मयी दरसायो करौ हित के हित लेखे । नातो अहो 'हरिऔध' सुनो तन रैहै नहीं पतिान के पेखे । प्यारे न मानती हैं अखियाँ बिन रावरी सॉवरी सूरत देखे ॥४|| उद्घोधिता उपपति-चातुरी से प्रेरित होकर प्रीति करनेवाली नायिका को उद्बोधिता कहते हैं। -