पृष्ठ:रसकलस.djvu/३७७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रसकलस १२८ ऋवित्त- सकुचित भौंहैं करि सोचति कळू है कौं कंटकित गात होत कबौं गरबीली को। ढरकि रहे हैं सेद - कन रोम - कूपन सों छाम है गयो है तन सकल छबीली को। 'हरिऔध' कहै वि डूबि मन काहे जात गहन लगी क्यों ऊबि ऊबि गति ढीली को। लहि लहि लाज कौन काज भरि भरि श्रावै रहि रहि आज नैन ललना रसीली को ।।१।। कवित्त- सुनती वतिया सखियान हूँ की गुरु लोगन हूँ की कही करती। नहिं वारि वहावती ऑखिन सों अपने उर धीरज हूँ धरती । हकनाहक ही हठ कै 'हरिऔध' हितून हूँ सों ना कौं अरती। अरी वा मन - भावन सॉवरे के सँग कैसहूँ भाँवरें जो भरती ।।२।। मृदर चौकनो चाव भरो अलबेलो अलौकिकता को सहारो। लाइ हिये दुख - मेटनवारो छबीलो छकी - अखियान को तारो। मृधो सजीलो सुजान गुनी 'अरिऔध' धरातल गौरववारो। वीर वताय दे क्यो मिलिहै वह भावतो।बालपने को हमारो ॥३॥ उद्बुद्धा अपनी इच्छा से उपपति से प्रेम करनेवाली परकीया को उबुद्धा कहते हैं। सवैया- मद-मद समद-गयद की सी चालन सों ग्वालन लै लालन हमारी गली आइये । पोखि-पोखि प्रानन को सानन सहित इन कानन को वॉसुरी की तानन सुनाइये।