पृष्ठ:रसकलस.djvu/४२०

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२७३ नायक 'हरिऔध' राजी भयो नव - रोम-राजी हेरि मोहि सो गयो है मजु - माल - हलकन पै गोल गोल-अमल-कपोल पै मचलि अयो बॉकुरो - बिहारी की अमोल - अलकन पै ॥२॥ कंज से नयन वैन अमिय सने से अहैं अलकन हूँ पै आभा नौगुनी लखाई है । चितवन-चारु चाल मंजुल - मराल की सी छलकति रोम रोम छवि - सुखदाई है। 'हरिऔध' हेरि हेरि लोक-कामिनीन हूँ की देव - भामिनीन हूँ की मति भरमाई है। नैन - अभिराम सुख-धाम धन-म्यामजू की सुंदरता काम हूँ ते सौगुनी सवाई है ।। ३ ।। सवैया- छलकी सी चहूँघा छई सी पर छवि अंगन माँहि समाती नहीं। सुकुमारता जैसी लसै तन मैं कहूँ तैसिये और दिखाती नहीं। 'हरिऔध' विलोकत ही बनि आवै लखे अँखिया हूँ अघाती नहीं। मन - भावती - सॉवरी - सूरत रावरी वावरी काहि वनाती नहीं ||४|| १--पति शास्त्र विधि से विवाहित कुल-मर्यादाशील सुपुरुष को पति कहते हैं। सवैया- धीर गंभीर गुनी गरुओ जेहि गौरव की गरिमा नित गैयत । सील सकोच सनेह सनो सुखमा लखि जाको हियो सरसैयत । मोद - भरो 'हरिऔध' मनोहर मैन की मूरत जाहि वतैयत । री वड़भागिनी भाखे कहा बड़े भागन प्यारो पती जग पैयत ॥१॥