पृष्ठ:रसकलस.djvu/४२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रसकलस ए 'हरिऔध' करो कितनो हूँ बिलब पै होत नहीं पतिआन मैं। बीस-गुनी मिसिरीते मिठास है बार-विलासिनी की बतिआनमैं ॥१॥ १-मानी प्रिया से रुष्ट होकर मान करनेवाला पुरुष मानी कहलाता है। कवित्त-- भरसति पूखन प्रकोप की प्रखरता ते रूखे-रुख तीखन-मरीचिन पे कुम्हिलात । कुवचन-प्रबल पवन की भकोर लागे प्रति-पल वाको वा मृदुल-तन थहरात । 'हरिऔध' बिरह-दवारि की दपट लागे महमही - मंजुल - प्रमोद - वारी मुरझात । तेरे प्रेम-बारि ही ते एरे वारि-धर स्याम बाल अलवेली नेह - वेली ज्यों लहलहात ।। १ ।। २-प्रोषितपति विदेश में प्रिया-विरह से विकल और सतप्त पुरुष प्रोषितपति कहलाता है ।' सवैया-- घोर मचाइ कै सोर घरी घरी घेरि करै घन हूँ बिपरीतै । दौरि दिसान महा-भयदाइनिन्दामिनि हूँ कर दीह-अनीतै । कैसी करें 'हरिऔध' कहो कै कछु है विदेस की ऐसियै रीते। प्यारी बिना बहु-भारी भई यह कारी-डरारी-निसा नहि वीतै ।। १ ।। कैसहूँ मोहि न भूलत है सो पयान-समै को विसूरियो भारी । होत है दाह धनी उर मैं तुमरी गति याद परै जव प्यारी। बावरो सो 'हरिऔध' भयो वह क्यों विसर नटि जान अगारी । सालती हैं अजहूँ उर मैं असुवान भरी अखियान तिहारी ।।२।।