पृष्ठ:रसकलस.djvu/४२४

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नायक 'हरिऔध' राखे नाँहि नेक ध्यान धर्म हूँ को वेद औ पुरान हूँ की लीक टारियत है। एरी नैन-तीर-वारी कहा तीर-बासिन को तीरथ के तीर काहू तीर मारियत है ॥३॥ चंचलता चौगुनी ठनगी चंद-मुख चाहि चाव भरे चटुल-चकोरन चारी मैं। भीरु-भूरि है है भटू भभरि सुगंध-अंध ठौर ठौर मौंरवारी - भौर-भीर - भारी मैं । 'हरिऔंध' मोर मंजु-वेनी हूँ विथोरि दैहै बृंदावन - छोर की बिलास-वारी-बारी मैं। सारी जरतारी पैन्हि भूलि जनि जा रो उतै आ री प्रान प्यारी तू हमारी फुलवारी मैं ।। ४ ।। क्रियाचतुर क्रियाचातुरी से परन्त्री-सबंधी प्रीति-काय-साधन-तत्पर पुरुष को क्रियाचतुर कहते हैं। सवैया-- क्यारिन कूल कछारन मै कल-कुंजन-पुजन गाजन लागी । विस्व-विमोहक वारी-कला बगरी चहूँ ओर विराजन लागी। ए'हरिऔध' बिहाइ कै लाज हूँ लाजवतीनको भाजन लागी। वावरी के व्रज की वनितान को बॉसुरिया बन बाजन लागी ॥१॥ ३--वैसिक वेश्यानुरक्त पुरुष को वैसिक कहते हैं। सवया- क्यों हूँ न याम जनात है जात रिमावत ऐसी रहैं रतियान मैं । देखत ही मन टूटि पर कछु राखहि ऐसी छटा छतियान मैं ।