पृष्ठ:रसकलस.djvu/४४३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रसकलस १४६ चलहु बहु सरस बनि रहहु पिय असरस - दुख-पुंज । कंज - नयनि तौ बिन भई अललित ललित - निकुज ।। ३॥ मध्यमा दोहा- सरसिज है सोई सरस जो सब दिन सरसात । सूखे - मुँह ते कत कहति तू सखि सूखी - बात ।। १ ।। बिकसित है 8 करति है मॅवर कॉहिँ रस - लीन । कबौं कमलिनी ना बनति कोमलता ते हीन ॥२॥ अघमा दोहा- कहिहै वतिया बहॅकि तो कछू न रहिहै हाथ । कितनी रहति कुरगिनी एक कुरंगम साथ ।। १ ।। देखी कितनी सुंदरी सुने बहु मधुर - बैन । तेरे ही कामिनि नहीं हैं कमल से नैन ॥२॥ स्वयंदूती जो नायिका दूती का कार्य स्वय करती है उसे स्वय-दूती कहते हैं । उदाहरण सबैया- कौन सों सोग भये जलजात लौ कोमल आनन है कुम्हलायो। कौन सी पीर भई उर मैं अहै आँखिन जाते अजी जल छायो । सॉची कहो 'हरिऔध' कहा भयो जो इतनो मन है मुरझायो । काके वियोग विभूति मले तन गोरो गुलाव सों क्यो पियरायो ।।१।।