पृष्ठ:रसकलस.djvu/४५४

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२०७ उद्दीपन-विभाव उलही ललित लतिका हूँ लहरान लागी। सलिल - सने से भये सूखे रहे थर जे। 'हरिऔध' धूंधरित धुरवा दिसान कोने फोरें काम केकी ए न मानें बीर वरजे। पीरद वियोगिनी के धीरद सँयोगिनी के नीरद के गगन नगारे आनि गरजे ॥१॥ कुंजन म बार बार कूकत कलापी - कुल पपिहा पुकार बार बार प्रीति परखत । घुमि धूमि घेरि बार बार घन घहरत हिलि हिलि तरु बार वार चित करखत । 'हरिऔध' वार बार मिल्ली-झनकार होति तिय - हिय लागि बार वार पिय हरखत । बीजुरी बिकासित करद व्योम बार वार बारिधर बार बार बारि - धारा बरखत ॥२॥ बनी ठनी बिबिध - बिलासवती - बाल होय बास बॅगलान होय बसन बसा रहै। वार बार बीजुरी को विपुल - विकास होय बरखत बारि होय बारिद घिरा रहै ।। 'हरिऔध' बीना वेनु बजत स-मोद होय बॉदी होय वेना होय बढ़त विभा रहै । बीरा होय बीरी होय बारुनी बयार होय बारी बैस होय तबै बरखा - बहार है ॥३॥ कारी कारी घटा नभ धूमि घहरान लागी बावरी हमारी तऊ बतिया बनी कहाँ।