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पृष्ठ:रसकलस.djvu/४५३

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रसकलस २०६ चंदनता चूर चूर भई चारु - चंदन की दूर भई सिगरी उसीर की उसीरता ॥१०॥ सवैया-- लेप उसीर को है सरसावत भावत चदन-चूर बगारो। सेद-सनो-तन है सुख पावत सीरे-समीर को पाइ सहारो॥ ही अनुरागत है अवलोकत सीतल-बारि है लागत प्यारो । तावन-वारो उपावन हूँ किये पायो निदाघ सतावन-वारो॥११॥ भीखन भोर ही ते बनि पूखन है जन के तन को बहु तावत आग लगाइ अगारन माँहि अगार धरातल पै बगरावत ॥ का 'हरिऔध' कर कित जाय अहै तप-ताप अपार तपावत । ना तहखानन मैं कल आवति ना खमखानन मैं सुख पावत ।।१२।। दोहा- निज-जननी को देखि दुख उठति ताप लहि भूरि । धधकत दव लखि धरनि मैं रवि दिसि धावति धूरि ।।१३।। दहन बने रवि-करन के 'दाह' न सकत निवारि । कैसे हूँ उबरत नहीं जो न काहि बहु तपावत नहीं तपरितु - आतप - ताप । तपन आपहूँ करन ते पिश्रत सरित सर आप ॥१५।। का अचरज जो बहु जगी जग-जीवन की प्यास । बन को नाम जपति अहै जरि जरि वन की घास ॥१६|| पावस कवित्त- प्यारे - 'यारे तन कारे-वन घूमन चहूँघा लगे तन मन वापुरे विदेसिन के लरजे। बरत जन बारि ॥१४॥