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भारत, रामायण आदि; और जो काव्य रंगमंच पर खेलकर दिखलाया जाता है, उसे ‘दृश्य’ कहते हैं, जैसे शकुन्तला और उत्तररामचरित आदि। पहले मैं इस बात का प्रतिपादन कर आया हूँ कि रस-उत्पत्ति के लगभग समस्त साधन दृश्य काव्य मे पाये जाते। इसलिये पहले-पहल दृश्य काव्य के आधार से ही रस की ओर विबुधो का विचार आकर्षित हुआ। जिस समय रंगमंच का अभिनय देखकर लोग पुलकित होते थे और तरह-तरह के भावो से उनका हृदय गद्गद होता था, साथ ही जब विचारशील अपने साथ अन्यो को भी पानंदस्रोत मे बहते देखते तो उनको यह विचार होता कि जिस रस की प्राप्ति से दर्शक-मंडली इस प्रकार विमुग्ध होती है, उस रस का आधार कौन है? और वह के ने उत्पन्न होता है? स्मरण रहे, यहाँ पर रस ले उस तरल रस और साधारण आनद से हो प्रयोजन है, जो अभिनय के समय प्राय सत्र दर्शको को प्राप्त होता है। उस परमानंद अथवा प्रगाढ़ रस से नहीं, जिसका निरूपण बाद को गम्भीर गवेपणा के उपरान्त साहित्य-सर्मज्ञो ने किया। इदय मे तर्क उपस्थित होने पर सहदयो ने उसपर विचार आरंभ किया और अनेक सिद्धांतो पर पहुंचे। रसगंगाधरकार ने उसका बड़ा सुंदर वर्णन किया है, उन्हीं के ग्रंथ के अाधार पर मैं इस विषय मे यहाँ कुछ लिखता हूँ।

आप लोग जानते हैं कि नाटको में जनता की दृष्टि को अपनी ओर अधिक आकर्पण करनेवाले, उसके पात्र हो होते है। अभिनेता में ही यह शक्ति होती है कि अपने अभिनय और कलाकौशल से वह दर्शको के हदय में स्थान ग्रहण कर लेवे। अतएव पहल-पहल कुछ लोगो का यह विचार हुआ कि ‘भाव्यमानो विभाव एव रस.’। नाटक-पात्रों के वेष मे आकर जो अभिनेता हमारे सामने नन्संबंधी प्रेममूलक अथवा अन्य मनोभावों से सम्पर्क रखनेवाले कार्य-कलाप करता एवं नाना प्रकार की लीलाओ और हाव-भाव-कटाक्ष से हम लोगों को विमुग्ध