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पृष्ठ:रसकलस.djvu/४७

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२० है बनाता है, मूर्तिमान रस बही है। क्योकि नाटक-पात्रों के समस्त भावो और व्यापारा का आधार अथवा आलबन वही होता है । अनेक विचारशीलो को यह बात न जची। उन्हाने सोचा, अभि- नेताओं मे यो तो कोई आकर्पण होता नहीं, जब वे विशेष वेषभूषा में रगमच पर आते हैं और अपनी अगभगी, चेष्टाओ और रागरग से लोगो को विमुग्ध करते हैं तभी दर्शको को आनद प्राप्त होता है । अत- एव रस चेष्टाओ और अगभगी आदि ही मे रहता है, अभिनेताओं मे नहीं। उनके इस विचार को रसगगाधरकार ने इन शब्दो मे प्रकट किया है 'अनुभावस्तथातथेतरे' । भाव इसका यह है कि कुछ लोगो की यह सम्मति है कि 'अनुभावों में रस रहता कतिपय भावुको के मन में यह बात भी न जमी। उन्होने कहा, 'चेष्टाए और अगभगी आदि अनुभाव किसी मानसिक भाव के परिणाम होते हैं, इसलिये रस रह सकता है तो उसी में रह सकता है, क्योंकि कारण का गुण ही कार्य मे होता है' अतएव उनके मुख से यह यात निकली-व्यभिचावेव तथातथा परिणमति', अर्थात् हृदय के व्यभिचारी भाव ही रस-रूप मे परिमत होते हैं। ज्योज्यो इस विषय मे तर्क आगे बढा और विचार होने लगा, त्यो त्यो गई-नई धारणाए हुई और एक के बाद दूसरे मत प्रकट होने लगे। किसी न कहा, 'विभावादयन्त्रय समुदितौरसा', विभाव, अनुभाव और सचारी भाव तीनो मिलकर इसकी सृष्टि करते हैं, क्योकि वे परस्पर अन्यो- याश्रित हैं। किसी ने कहा-'त्रिपु य एव चमत्कारी स एव रसोऽन्यथा तु प्रयोऽपि नैव' 'तीनो मे जो चमत्कारी होगा, उसी की रस-सज्ञा होगी, अन्यथा किसी की नहो ।' जिस समय यह विवाद चल रहाथा, उसी समय नहामुनि भरत ने यह व्यवस्थादो 'विभावानुभावव्यभिचारिसयोगाद्रसनिष्पत्तिः।' विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव के सयोग से रस की निष्पत्ति होती है। किंतु यह उन्होने नहीं बतलाया कि इन तीनो का सयोग ,