पृष्ठ:रसकलस.djvu/४६३

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रसकलस भाग-भरी 'हरिऔध' तिया सुख सों अपनो सब साज' सँजोवै । साथ लखे सरदै नभ चंद हेमंत मैं कंत - गरे लगि सोवै ॥१०॥ कंधों प्रभाकर - श्रातप मै अरे के मद - प्यालन को अपनाये । कैधों धरे पट - तूल - भरे किधौ साल - दुसालन सो लपटाये । सीत हेमंत को कंधों टरै 'हरिऔध' अधूम - अगार तपाये । कै कमनीय उरोजन - वारी सरोज - मुखीन को अक लगाये ॥११।। दोहा- जीव जंतु की बात का तृन - तरु होत सभीत । पाला को लहि बिपुल - बल पाला - मारत सीत ।।१२।। भूमि कुहासामय भई सीत न समझत पीर । दुरि दिन वितवत दिवसपति सर सर चलत समीर ।।१३।। तृन - तरु - तन जीवन - बदन भाफ - पुज है भूरि । किधौं कुहासा है परत पसरत पुहुमी पूरि ॥१४॥ शिशिर कवित्त- घटी-जाति-राति हूँ मै दिन अधिकात हूँ मैं पियरात पात हूँ मैं प्रगट जनावै है। तीखे होत घाम हूँ मैं केते धूम धाम हूँ मैं ललना ललाम हूँ मैं रमत लखावै है। 'हरिऔध' तान हूँ मैं रग - वारे - गान हूँ मै आन - वारी वान हूँ मै मधुर दिखावै है । चोप चाव चैन हूँ मैं मद • मद वैन हूँ मै मुद - ऐन - ऐन हूँ मैं सिसिर मुहावै है ॥ १ ॥