सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:रसकलस.djvu/४६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२१५ उद्दीपन-विभाव को कहा है त्रास बाला है बहि बहि सीतल - समीर क्यों सतैहै ताहि सकल - बिभूतिमयी जाकी सुख - साला है। 'हरिऔध' ताको हिम-पात जाके पास परम - मधुर - मधु - प्याला है । जगी ज्वाल-माला है बसन तूल-वाला अहै दुसाला है हेमंत को मसाला है ॥ ७ ॥ धाई चली आवति है कैधों ध्रुव-धाम ही ते कैधो गिरी भू पै चंद-मंडल के फोरे ते । कैधो याहि काढ्यो कोऊ उदक-सरीर गारि कैधों बनी सीतलता जग की निचोरे ते । 'हरिऔध' कहै ऐसी दुसह - हिमंत - बात कैधो भई सीरी बार बार हिम बोरे ते । कैधों चली चंदन परसि मलयाचल को कैधो कदि आवति हिमाचल के कोरे ते ॥८॥ वात ना चलैये नाथ सिसिर वितावन की सुरति बसंत मै बिसारिकै न फूल तू । गरव न कीजै भूलि ग्रीखम गॅवावन को पावस न आवन उमंग मैं न मूलै तू । 'हरिऔध' कैसो तेरो कठिन करेजो है जो सरद समैया हूँ मैं रह्यो प्रतिकूल तू । कीने केते तंतन के प्रानन को अंत हैहै कही मानि कंत या हेमंत को न भूलै तू ॥ ६ ॥ सवैया- फाग रचे पिय सो सिसिर पति साथ वसंत मैं वागन होवे। ग्रीखम मैं तहखाने वसै घन की छबि पावस मैं सँग जोवै ।