पृष्ठ:रसकलस.djvu/४६७

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रसकल्स २२० बोलि बोलि बैस - वारी ब्रज को बधूटिन को लूट सी करी है वा अबीर-वारे-थाल की। मारि पिचकारी ताकि कलित - कपोलन पै लाल लाल मंडली बनाई ग्वाल-बाल की। 'हरिऔध' चकित बनति बहु चौंकत सी चोरत सी चाल काहू मजुल • मराल की। गोरे-गोरे-गाल-वारी ए री वह गोरी-वाल लाल पै चली है मूठ भरि कै गुलाल की ।।४।। गरबीले - ग्वारन की गारी हूँ न कान कीनी तनक न मानी आन तीखी-तान-तारी की। रंग को उमग की अनग - भरे बैनन की सुरति न कीनी सॉवरे की गति न्यारी की। 'हरिऔध' ध्यान में न आनी धोखे हूँ धमार धूम हूँ धमार - वारे धीर - धुरधारी की। मीड़ित - गुलाल - मजु - बदन - रसाल मोरि विहॅसि बचाई वाल चोट पिचकारी की ॥ ५ ॥ गावत है गारी भरो गीतन असक ह के वोलन कबीर मैं निसक अति दरसाय । लाल कीनो बीथिन बजारन गुलाल फैकि अविर उड़ाइ लीनी अरुन दिसा बनाय । 'हरिऔध' ऐसो अपमान कैसे सह्यो परै ललिते कहा तू इतो रही आज अरगाय । गहि कै गरव वाको होरी को निवारै क्यो न ऊधम मचावे कौन ए री बरसाने प्राय ॥ ६ ॥