पृष्ठ:रसकलस.djvu/४६९

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रसकलस २२२ बीर बरसानो छोरि गोकुल गई ही आज जान्यो ना गोपाल ऐसो अधम मचायहै । सारी बोरि दीनी सारो गात करि लीनो लाल जैसो छल कीनो ताहि कैसे बतरायहैं। 'हरिऔध' अब तो न आपने रहे हैं नैन करिकै उपाय कौन इन समझायहैं । अंग लाग्यो रग तो सलिल सो छुडाय लैहैं नेह सग लाग्यो तासों कैसे छूटि पायहैं ॥१०॥ छोरो रग चाव सों हमारे इन अगन पै काहूँ कछू ना लाल भूलि हम कहिहैं । बोरि दीजै सिगरी हमारी सारी केसर मैं मन मैं बिनोद मानि मौन साधि रहिहैं । 'हरिऔध' अँखियाँ छकी हैं रावरी छवि मैं इनपै दया ना कीने क्यों हूँ ना निबहिहैं । परिवो पलक को तो कैसहूँ सहत प्यारे परिवो गुलाल को गोपाल कैसे सहिहैं ।।११।। सवैया- चेटक सी करि चोरि गई चित्त चाव-भरी चलि चचल-चाल सों। मोहि गई मनमोहन को वा अबीर-भरी मनि-मोतिन-माल सो। ए 'हरिऔध' चलाई पिचूकन वेधि गई जुग-नैन विसाल सो। लाल-गुलाब लपेटि गई वह गोरटी हाल ही लाल के गाल सों ॥१२॥ ताकि के मारत हो पिचकारी तऊ मन मै तनको नहिं खीजत । रग मैं सारी भिगोय दई हम ताको उराहनो हूँ नहिं दीजत ।। पै इतनी बिनती 'हरिऔध' सया करि क्यों हमरी न सुनीजत । गॉगी अखियान को प्यारे गुलाल ते लाल क्यों कीजत ।।१३।।