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पृष्ठ:रसकलस.djvu/४९

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२२ दर्शक लोग उस समय अभिनेताओं को ही नाटक-पात्र मान लेते हैं और उनका यह ज्ञान ही उनके सुख-दुख अथवा आनंद का कारण होता है। शंकुक कहते हैं कि आरोप कर लेने में अवास्तविकता है। यदि आरोप करने के स्थान पर अनुमान कर लेना कहा जावे तो अधिक सगत होगा। भट्टनायक ने आरोप अनुमान की बात नहीं मानी। उन्होंने कहा- 'अभिनय देखने के समय जो आनद का प्रवाह बहता है, अथवा करुण आदि रस जिस भाव का विस्तार करते हैं, वे मोहक और व्यापक होते हैं। इसलिये उस समय दर्शक यह अनुभव नहीं कर पाते कि जिन रात आदिक भावो के आधार से वे रस विशेप का आस्वादन कर रहे है, उनके हैं, अथवा किसी नाटकीय पात्र के । वास्तव में उस समय वे बिल्कुल निरपेक्ष होते हैं। काव्य-प्रकाशकार को किसी की सम्मति पसन्द नहीं आई, उन्होने स्पष्ट कहा- कारणान्यथ कार्याणि सहकारीणि यानि च । रत्यादे स्थायिनो लोके तानि चेन्नाट्यकाव्ययोः ।। विभावा अनुभावास्तत् कथ्यन्ते व्यभिचारिण । व्यक्त स तैविभावाद्यैः स्थायी भावो रस स्मृतः ॥ लोक मे रति आदिक स्थायी भावो के जो कारण, कार्य और सह- कारी होते है, नाटक और काव्य मे ही विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी क्रन से कहलाते हैं। इन विभावादि की सहायता से व्यक्त स्थायी भाव को रस-सज्ञा होती है। इसके आगे वे लिखते हैं 'अभिव्यक्त. सामाजिकानाम् वासनात्मतया स्थितः स्थायी रत्यादिको ..अलौकिकचमकारकारी शृगारादिको रस ।' किस व्यक्त स्थायी भाव की रस-सज्ञा होती है, इस वार्तिक मे यह स्पष्ट हो जाता है। उन्होने बतलाया कि सामाजिको ( दर्शको) के हृदय