२३ में वासना रूप में स्थित स्थायी, रति आदिक भाव को ही रसत्व प्राप्त होता है। मैं समझता हू, निम्नलिखित वार्तिक में इसी बात को नाट्य- शास्त्रकार भरत मुनि उनसे भी पहले कह चुके हैं- "नानाभावाभिनयन्यजितान्वागगसत्योपेतान् स्थायिभावानास्वादयन्ति सुमनसः प्रेक्षकास्तस्मान् नाट्यरसा इत्यभिव्याख्याता.।" नाना भावाभिनय से व्यंजित वचनावली और अंगभंगी द्वारा दर्शक लोग मन में स्थायी भावां के रस का आस्वादन करते हैं इसी- लिये नाटको में 'रस' माना गया है। लगभग यही सम्मति अभिनव गुप्ताचार्य की है, वरन् वास्तविक बात तो यह है कि काव्यप्रकाशकार का विचार उसके प्रभाव से प्रभावित है। साहित्य-दर्पणकार का भी यही मत है और कुछ शाब्दिक परिवर्तन से इसी सिद्धात को पंडितराज जगन्नाथ भी स्वीकार करते हैं। बीच-बीच मे ओर तर्क-वितर्क भी हुए हैं, परंतु इस समय सर्व- मान्य सिद्धान्त यही है। हिंदी शब्दसागर के रचयिता विबुधजन इस विपय मे जो लिखते हैं. उमे भी देखिये- "हमारे यहाँ के प्राचार्यों में इस विषय मे बहुत मतभेद है कि रत किसमे तथा कैसे अभिव्यक्त होता है। कुछ लोगों का मन है कि न्यायी भावो को वास्तविक अभिव्यक्ति मुख्य रूप से उन लोगो मे होती है, जिनके कार्यों का अभिनय किया जाता है। (जैसे राम, कृष्ण, हरि- श्चद्र आदि) और गौण रूप से अभिनय करनेवाले नटो में होती है, प्रत. इन्हा में लोग रस को स्थिति मानते हैं। ऐसे प्राचार्यों का मत है कि अभिनय देखनेवालो का काव्य पढ़नेवालो के साथ रस का कोई सबंध नहीं है। इसके विपरित अधिक लोगो का यह मत हे कि अभिनय देखनेवाला तथा काव्य पढ़नेवालो मे ही रस की अभिव्यक्ति होती है। ऐसे लोगों का कथन है कि मनुष्य के अन्तःकरण में भाव
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