२४५ रस निरूपण रस निरूपण स्थायी भाव जब विभाव, अनुभाव और संचारी भावों के सहित चमत्कृत होकर मनुष्यों के हृदय में अलोकिक और विलक्षण आनंद का स्वरूप धारण करता है, तब वह रस कहलाता है । उदाहरण कवित्त- सोच ना रखत भव - मोचन को भाव देखि रुचि मोहिं रुचिर - प्ररोचना भरत है। प्रतपित होत पाप - तापते न प्रेम लहे प्रथित प्रताप - वल पातक हरत है। 'हरिऔध' हरि के विचारित - चरित गाइ विचलित - चित को उवारि उवरत है। पावन-अनिंदित-पराग को मिलिंद वनि वदित - पदारविंद वंदन करत है ॥१॥ मंजु - चंद - मुख देखि मानस बनत सिधु सुनि वैन कान - रस पान कै अघाये हैं। कल - केलि अवलोकि मुदित - महान होत भोरे भोरे भावन के भूरि - सुख पाये हैं। 'हरिऔध' मजुल - मधुर - मुसुकानि हेरि उमगि उमगि सुधा - सर मैं अन्हाये हैं। परम - सलोने गोरे - गालन पै वारि जात लोने - लोने - लालन पै लोचन लुभाये है ।।२।। वन बन मॉहिं दरसत सुर - तरु नाहि सरस - रसाल को सदन है न बौर वार ।
पृष्ठ:रसकलस.djvu/४९२
दिखावट