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पृष्ठ:रसकलस.djvu/४९५

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रसकलस २४५ हरि कहै 'हरिऔध' हि देवकी क्यों गहि नाथि लियो अहि-कारो। कस हूँ को मल मारि लियो किमि फूल सों कोमल-लाल हमारो ॥६ काम न ऐहै बिकास कवौं रस-हीनन सों रस प्यास न जैहै । चाहे करै उपवास सदा कवौं काहू बिसासो - अवास न जैहै । कै बन-बास उदास रहै पै अनेहिन को बनि दास न जैहै। पास कपास-प्रसूनन के अलिबास - बिलास को आस न जैहै ॥१०॥ दोहा- दोऊ नैनन मैं रही छवि - रावरी समाय। चहूँ - ओर तिहुँ - लोक मैं तू ही एक लखाय ।।१।। कारे कारे कूबरे सिगरे बरन लखाहि । बरनि सकत कैसे कोऊ सुवरन - बरनी काहि ।।१२।। कहा भाग ऐसो अहै बिगरि बने जो बात । कबहूँ दूध बनै न सो जो कैसहुँ फटि जात ॥१३।। भलो बुरो समयो नहीं है अपने बस मॉहि। पै 'हरिऔध' न होत सो भाग लिखी जो नाहि ।।१४।। बोलि रिसौहैं - वैन ए कत कीजत अलि बार । बागन मैं वावरी वगरी देखु बहार ॥१५॥ बन