. २६५ रस-निरूपण 'हरिऔध' काहू की कही न उर आने रूख पात हूँ सों पूछे औ वखानै बात रावरी । काल रही नैनन की पूनरी जो बाल आज एरे निरदयी तेरे देखे बिना बावरी ॥१॥ इत उत दौरी फिरें हसैं रोवै थिएँ नाहि अनु - छन दीवो करें बन वन भॉवरी। इक टक लावै जो पयोद लखि पावें कह भिरहि तमाल हूँ विलोकि छवि सॉवरी । 'हरिऔध' उघरी ही रहैं लाज हूँ ना बहैं पलकन हूँ ना चहैं बीते हूँ विभावरी । प्यारी वह सूरत तिहारी अहो प्रान-नाथ अँखियाँ हमारी भई देखे विना वावरी ॥२॥ सवैया- बातें वियोग-विथा सों भरी अरी बावरी जानें कहा वनवासी। पीर हूँ नारिन के उर की ना पछानत ए तरु-तीर - निवासी। सोभा, स्वरुप, मनोहरता 'हरिऔध' सी यामैं न है छवि खासी। बाल तमाल सों धाइ कहा तू रही लपटाइ लवंग-लता सी॥३॥ दोहा- बनति कमलिनी राति की बिगत-निसा ससि जोति । भये रावरी छबि सुरति बाल बावरी होति ।।४।। रोअत हसत लरत भिरत ललकत लहत न चैन । बिना रावरे - मुख लखे भये बावरे नैन ॥५॥ ८-व्याधि वियोग व्यथाजनित शरीरकृशता, पांडुता आदि अस्वास्थ्य को व्याधि कहते हैं। ३२ ,
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