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पृष्ठ:रसकलस.djvu/५१५

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रसकलस २६८ - हिलत डुलत बोलत नहीं खोले खुलत न नैन । कहा भयो पतिया पढत धरकति छतिया है न॥४॥ १०-मूर्छा वियोग-दशा में शरीर के दुःख-सुग्व का ज्ञान न रहने का नाम मूर्छा है । उदाहरण कवित्त- जो चित चिता की भाँति चिनगी लगावे चेति वाते तो अचितित अचित उपकारी है। जो उर नरक नाना-यातना-निकेतन है वाकी अनुरागिनी धरा मैं कौन नारी है। 'हरिऔध' विधि के विधान ते कहा है बस या हो ते बतावति बियोग-व्यथा-वारी है। मीनता मलीन-मीन-केतनता ते है मंजु चेतना ते चौगुनी अचेतनता प्यारी है ॥१॥ सवैया- होत है ज्ञान कवौं हित को नहिँ, गॉठ कवौं हित की जुरि जाति है। मोह-मयी कबहूँ दिखराति कबौ सब मोहन ते मुरि जाति है। प्रीति कवौं छलकी सी पर कवौं दीरघ-लोयन मैं दुरि जाति है। है सियराति अचेत भये तिय चेतन चॉदनी मैं चुरि जाति है ।।२।। दोहा- दही तिया पतिया पढ़त रही देह-सुधि नॉहि। पकरि उर छिलत आपनो मुरछि परी महि मॉहिं ।।३।। कित ते इत आई अरी मंद मंद करि गौन । मुरछित है छिति पर परी अहे परी यह कौन ||४|| - -