सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:रसकलस.djvu/५१६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रस निरूपण ११--मरण प्राण-परित्याग का नाम मरण है, वियोगावस्था में चरम नैराश्य की गणना मरण दशा में की जाती है। उदाहरण कवित्त- परलोक हूँ मैं पन पूरो होत काहु को तो उर को प्रतीति प्रानग्यारे की घनी रहै। अहित भये हूँ मेरे प्रति - रोम - कूपन मैं 'हरिऔध' ग्यारे ही के हित की ठनी रहै। हो तो ही मरत मिलत जो मुये हूँ कछू, तो हौं चहौ प्रेम ही की वारुनी छनी रहै। लगी रहै लोयन को ललक विलोकन की मुख - अवलोकन की लालसा बनी रहै ।। १ ।। हैं दुखी अखियाँ हमारी तुमै देखे विना श्राग हूँ वरैगी बार - बार मेरे उर मैं। तेरे कल - बैन विना कान हूँ न पैहैं कल नीरसता छैहै किन्नरीन हूँ के सुर मैं। अधर तिहारो पान कीने विना 'हरिऔध' माधुरी न रहि है सुधा से मधुर तेरे विना एरे प्रान - प्यारे ए हमारे - प्रान पाइहैं प्रमोद ना पुरंदर के पुर मैं ॥२॥ में। .