सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:रसकलस.djvu/५२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

. . 'पानक रस के समान जिनका श्रात्वाद होता है, जो स्पष्ट झलक जाते. हृदय में प्रवेश करते, व्याप्त होकर नवाग को सुधारस-सिंचित बनाते, अन्य वेद्य विपयो को ढक लेते और ब्रह्मानंद के समान अनुभूत होते हैं, वे ही अलौकिक चमत्कारसम्पन्न शृगारादि रस कहलाते हैं । यह हुई शृगारादिक रम की परिभाषा । यहाँ प्रश्न यह होता है कि करण, भयानक आदि रसो मे, जिनके स्थायी भाव शोक, जुगुप्सा और भय आदि हैं, इस परिभाषा की सार्थकता कैसे होगी? क्योकि वे तो दु.खमय होते हैं। इसका उत्तर साहित्य-दर्पणकार इस प्रकार देते हैं- करुणाटावपि रसे जायते यत्परसुखम् ॥ सचेतसामनुभव. प्रमाणं तत्र केवलम् । किंच तेषु यदा दुःख न कोऽपि त्यात्तदुन्मुख. ।। नहि कश्चित् सचेतन आत्मनो दुःखाय प्रवर्तते । करुणादिपु च सफलत्यापि साभिनिवेशप्रवृत्तिवर्णनात्सुखमयत्वमेक । 'करण आदि रसो में भी जो परमानंद होता है. उसके लिये सहृदयौ का अनुभव ही प्रमाण है। यदि करुणादि रसों मे दुख होना हो तो करुणादि रस-प्रधान काव्य नाटकादि के श्रवण, दर्शन आदि में कोई भी प्रवृत्त न हो क्योकि कोई भी समझदार अपने दुःख के लिये प्रवृत्त नहीं होता; परन्तु करुण रस के काव्यो मे सभी लोग अाग्रहपूर्वक प्रवृत्न होते हैं. अतः वे रम भी सुन्यमय हो हैं । -विमलार्थदर्शिनी। यह कहकर स्वयं तर्क करते हैं. दुख के कारण से कैसे होगी? उत्तर देते हैं- 'लौकिकयोक्दादिकारणेभ्यो लौकिकशोकर पदियो जायन्ते, इति लेक एव प्रतिनियमः, काव्ये पुनः सर्वेभ्योऽपि विभावादिन्यः सुखमेव जायते ।' 'गोक के कारणों से शोक के उत्पन्न होने और हर्प के कारणो से ' मुख की उत्पत्ति