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पृष्ठ:रसकलस.djvu/५१

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२४ . पहले से ही विद्यमान रहते हैं और काव्य पड़ने अथवा नाटक देखने के समय वही भाव उद्दीप्त होकर रस का रूप धारण कर लेते हैं और यही मत ठीक माना जाता है। तात्पर्य यह कि पाठकों या दर्शकों को काव्यो अथवा अभिनयो से जो अनिर्वचनीय और लोकोत्तर आनंद प्राप्त होता है, साहित्य-शास्त्र के अनुसार वही 'रस' कहलाता है।" -हिंदी शब्दसागर, पृष्ठ २९०८ रस का विषय वडा वादग्रस्त है, कुछ मर्मज्ञ विद्वानों की धारणा है कि अब तक रस की उचित मीमांसा नहीं हुई। जो हो, किंतु मैं यह कहूंगा कि उसका शास्त्रार्थ जिस विस्तृत रूप से ग्रथों में लिपिबद्ध है, वह साहित्य की बहुमूल्य और मननशीलता की अद्भुत सम्पत्ति है। वह अगाध समुद्र है, इवने पर उसमें बहुमूल्य रत्न प्राप्त होते हैं, किंतु यह कार्य है, बड़ा उद्वेगजनक और दुस्तर । मैंने थोड़े में जिन बातों का परिचय दिया है, वह कहाँ तक यथातथ्य है, यह कहना कठिन है। जहाँ शब्दों की ही पकड है और बात-बात में तर्क-वितर्क होता है, वहाँ निश्चित रूप से किसी सिद्धांत का सक्षिप्तीकरण सुलभ नहीं। किंतु यह दुस्साहस मैंने किया है, आशा है पाठको को इससे रस का इतिहास जानने में कुछ सुविधा अवश्य होगी। सस्कृत को छोड़कर रस की कल्पना और किसी भाषा मे नहीं हुई। अँगरेज़ी, अरबी, फारसी और उर्दू में भाव के ही पर्यायवाची शब्द मिलते हैं, रस के नहीं। रस का विवेचन जितना ही विमुग्धकर है, उतना ही पाडित्यपूर्ण । रस की आनंदस्वरूपता काव्यप्रकाशकार लिखते हैं- 'पान करसन्यायेन चय॑माणः पुर इव परिस्फुरन् हृदयमिव प्रविशन् सर्वां- गीणमिवालिङ्गन् अन्यत् सर्वमिव तिरोदधत् ब्रह्मास्त्रादमिवानुभावयन् अलौकिक- चमत्कारकारी शृगारादिको रसः ।