पृष्ठ:रसकलस.djvu/५२१

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रसकलस २७४ कैसे रोम रोम मैं समायो दुख ऊन होतो कैसे होतो कछुक दहत - गात सियरो। 'हरिऔध' बिधवा-विलाप जो करत नाहिं कैसे भला बावरो बनत तो न जियरो। कैसे पिक-कूकते करेजो ना मसकि जात हूक ते न कैसे टूक टूक होतो हियरो ॥१॥ कब लौं निबाह होतो वेदना - बहन करि कौ लौं करि केते व्योंत काया काँहि कसती। व्रत-उपवास कै बितावति दिवस को लौं कब लौं बचावति विवेचना बिनसती। 'हरिऔध' बार बार विपुल - बेहाल बनि कैसे बाल - विधवा बसुंधरा मैं बसती । मन को मसोस जो न कढतो उसास - मिस उर की कसक जो न ऑसू है निकसती ॥२॥ रूप होते जाको है कुरूपता - कुरोग लगो कौं जो कलक - अक ते न उबरति है। बारि - घर जाको तन दहत बर्रास बारि जाकी मति मधु - रितु - माधुरी छरति है । 'हरिऔध' ऐसी वाल-विधवा अभागिनी है जाको दुख अनुरागिनी हूँ ना दरति है। चाँदनी चमकि जाके चित को हरति चेत जाको चैन चूर चंद - चारुता करति है ।।३।। ससुर को सुर जाके सुर सो मिलत नाहिं जाको जर सासु है विसासिनी खनति है।