२७५ रस निरूपण देवर के तेवर हैं जाको वेधि - वेधि देत औगुन गनन जाके ननद गनति है। 'हरिऔध' कैसे होवै विधवा व्यथित नॉहि जाको जाति नाना यातना हित जनति है। जाकी पति पिता - सम पाता हूँ रखत नाहि जाके हित माता हूँ विमाता सी बनति है ॥४॥ सबैया- - नागिनि-सी भई फूल की सेज दवागिनि-सी उर मॉहि बरी है। मंजु कला-कर काल भयो विधवा - सुख - साज पै गाज परी है। सो विधि क्यों न भई जरि छार अहो 'हरिऔध' जो दाह भरी है। काहे भई छतिया छत - पूरित काहें छरी गई फूल - छरी है। जाको छबीलो उछाह भरो छलिया - विधि के छलछंद ते छूट्यो। जाको सु-जीवन मंजु-हरा भव-कंटक काल के हाथ ते टूट्यो । ए 'हरिऔध' सुहागिन होत ही जाको सुहाग अभाग ने लूट्यो। वा सम कौन अभागिनि जाको भये बड़ भागिनि भाग है फूट्यो ॥६॥ कारुणिकता कवित- जाकी कुसुमावलि - कलित चितचोर हुती सोई भूरि - धूरि - भरो भूतल पै परो है । जाको फल चाखि रही रसना सरस वनी पात विनु नीरस है ताको गात गरो है। एहो 'हरिऔध' जो अवनि-अंक लाल हुतो सोई आज काल को कवल बनि अरो है।
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