इसकलस . ताप-जरो जीव जाते सुखित - खरो है भयो सोई हरो भरो तरु सूखो, सरो, मरो है ।। १ ।। संवैया- नीले बितान में हैं न लसे अब हैं न बसे तम मैं बनि न्यारे । हैं रजनी के न अक बिभूखन हैं न बिलोचन - रजन - हारे । ए 'हरिऔध' न हीरक से अब हैं बिलसे बर - जोति - बगारे । तेज - बिहीन है धूरि - भरे महि मैं हैं परे बिखरे नभ - तारे । मर्म-व्यथा कवित्त- आवत है दूर ते विमोहित बिपुल बनि भावतो न मानतो अभाव को तो हरतो। तन - मन - वारि भूरि - भावरै भरत हेरि रीम जो न जातो भले - भाव ते तो भरतो। 'हरिऔध' कहै एरे दोप तू दिपे है कहा लोक ते नहीं, तो परलोक ते तो डरतो। देह क्यो दहत है पतग जैसे प्रेमिक को नेह भरो हूँ कै क्यो सनेह है न करतो ॥ १॥ सबैया- चंद चकोर को चाहै नहीं पै चकोर है चद को चाहि निहारत । नीर कौं नहिं मानत मीन को मीन है नीर ते जीवन धारत । ए 'हरिऔध' अनेही कवौं नहिं नेह के नेहिन कॉहिं निहारत । है न पयोद पपीहरा प्रेमिका प्रान पपीहा पयोद पै वारत ||२||
पृष्ठ:रसकलस.djvu/५२३
दिखावट