पृष्ठ:रसकलस.djvu/५२५

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सकलस २७८ पै कैसे कुल - कमल कहाइहैं कमाल करि कुल को कलक ते कलंकी जो न करिहैं ॥ ३ ॥ सवैया- केते कलंक भयों के भये बलि केते गये गरिमा ते गिले हैं ऐसे धरा मैं अनेक धंसे जिनके मुख-पकंज हूँ न खिले हैं। छोजि गये अजौं छीजत जात तऊ हिय पाहन से न हिले हैं। घूर फूल-से-वाल मरे वहु धूल मैं लाखन लाल मिले हैं।॥४॥ विनय सवैया- औगुन के ही रहे वन औगुनी नोहि गुनी गुन की गरुआई । औरन पेरि भई पुलकावलि जानि परी नहिं पीर पराई । आकुल भो 'हरिऔध' कहाँ अवलोकत ही जनता अकुलाई। देखि भरी दुखिया-अखियान की है न कबौं अखिया भर आई ॥ १ ॥ ऑखि-विहीन हौं ऑखिन आछत नाथ कबौ अखिया मत फेरो। मो मति पगु भई है, मया करो अध औ पगु को पथ निवेरो। है 'हरिऔध' तिहारो न और को जैहै कहाँ तजि के पग तेरो। मो करनीन ते काज कहाँ करुना करिक करुनाकर हेरो ।। २ ।। विपत्ति-वासर दोहा- जल सूखे, अमरस भयो, सरसिज नॉहि लखाहिँ। कैसे विसर न जॉय ग्वग ऐसे सरवर काँहि ॥१॥ दूर भई सब मंजुता ताकत नॉहि मिलिंद । अवनीतल पे है परो धूरि भरो अरविंद ।। २ ।।