पृष्ठ:रसकलस.djvu/५३७

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सकलस २६० छल' ना करहिं पै करेजो छीलि छीलि देहि राखत कपाल बानि लेत बाल बाल हैं। 'हरिऔध' का हैं ए स्वराज तरु-पालवाल सुमन की माल के भुजंग - बिकराल हैं। जाति - हित - ढाल किधों हितू कंठ-करवाल हिदू - कुल - लाल किधौं हिंदू-कुल-काल हैं ।। ७ ।। मंदिर विलोकि कै पुरंदर सिहाने रहैं पास सदा इदिरा को आसन परो रहै। सारे लोक पिसें पावै कन ना पिपीलिका हूँ प्रभूत - धन धरा - धिप लौ धरो रहै। 'हरिऔध' चाहत हैं भोरे - भाग वारे यहै छूवै ना छदाम द्वारे धनद खरो रहै। भावते अभाव हरि भोला - नाथ भूले रहैं सदैव भूरि - वैभव - भरो रहै ।। ८ ।। दोहा- है लौकिकता - रहित हरि परम अलौकिक चीज । है वारिद - भव - सालि को जगत - विटप को बीज || ६ || चित - अलि कत भरमत रहत कहाँ नहीं है वास । बिकसित - कुसुमन मै अहै काको सरस - बिकास ॥१०॥ कहाँ नहीं निवसत अहै सकल - लोक - अभिराम | लखन जोग लोयन लखत वाको रूप - ललाम ।।११।। आलोकित वाको कर मिल्यो न वह आलोक । लोक छोरि परलोक को कत अवलोकत लोक ||१२|| तीनो लोकन मैं फिरे देखे तीनों काल। कहि पायो परलोक को को अवलोकित - हाल ।।१३।। भवन सदैव