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पृष्ठ:रसकलस.djvu/५३८

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२६१ रस निरूपण हित चाहै पर अहित करि द दै पूजा भूरी । हरि आँखिन हूँ मैं अधम झोंकन चाहत धूरि ॥१४|| का जग है काहे भयो कहा हेतु का काम । कौन बने है कौन है या मंदिर है या मंदिर को राम ।।१५।। बॉधन हित भव - उदधि मैं सत - रज - तम को सेतु । है त्रि - देव की कल्पना एक देव के हेतु ॥१६॥ प्रेम - पिपासा है - बढ़ी चित प्रति - दिन पवि होत । पारावार तरन चहत रचि पाहन को पोत ||१७|| कैसे अनुरागी बने है न राग मय अंग। 'लाल' न, कारो चित भयो लहे लाल को रंग ॥१८॥