पृष्ठ:रसकलस.djvu/५४०

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२६५ रस निरूपण आदर न पैहैं तवौ बार जो वितैहैं खरे तवौँ ना लुभैहैं जो मनो - भव लौ लसिहैं । सहज - सनेह के न भाजन बनेंगे तवौं मंद - मंद मोहक - मयंक लौं जो हॅसिहै। 'हरिऔध' अकस तजत ना अकस - वारो कसे काँहि कब लौं कसौटिन पै कसिहैं । कौं काहू कामिनी नयन मैं बसे तो बसे नर अब नारि के नयन मैं न वसिहैं ॥ ३ ॥ वदन हहै सरस - बदन - वारी विरस गुनन - गहन - वारी औगुन को गहिहै । उपहास के है मंद - मंद - विहॅसन - वारी नेह - गेह - वारी - नेह - गेहता न लहिहै । 'हरिऔध' पति - परतीति मैं न प्रीति रहे राग - मयी महि मैं विराग - धारा बहिहै । पिक - वैनी पिक - बैनता ते पुलकैहै नॉहिं मृग - नैनी - मृग - नैनता ते रूसि रहिहै ।। ४ ।। मोहक - मधुर - प्रेम मलय - समीर लगे कामना की वेलि नॉहि मंद - मंद हिलि है। नंदन - विपिन - सम - मानस - मनोरम मैं मंजु-भाव - पारिजात-कुसुम न खिलिहैं। 'हरिऔध' कांत को अकात अवलोकि है तो मृदुल - करेजो कुल - कामिनी को छिलिहै। कोमलता कमल - वदन की न काम ऐहै कनक लता मैं कमनीयता न मिलिहै ॥५॥