पृष्ठ:रसकलस.djvu/५३९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रसकलस २६४ - सवैया- सामने होति नहीं अँखियाँ मुंह फेरि सुनावत बैन रसीले। आनन जोहत वासर बीतत मोहिं रिमावत खोजि वसीले ।। ए 'हरिऔध' मरोरत भौंह नचावत नैनन को करि हीले । कोऊ लजीली लजै है कहाँ लगि आप ही जो हैं लजात लजीले २।। घुड़की धमकी कवित्त- आँखि दिखराइहैं तो दुगुनी दिखैहौं ऑखि पर - चित - चोरन की कसर निकारिहौं । रार जो मचैहैं तो तिगूनी तकरार है है पीछे परे बार बार पकरि पछारिहौं । 'हरिऔध' मान किये बनिहौं गुमानिनी हौं कैसे भला नारी है अनारिन ते हारिहौं । गारिहौं गरब सारो गोरे • गात-वारन को मरद - निगोरन की गरमी निवारिहौं ।।१।। मद - मंद हॅसि मंजु - वैनन सुनैहैं नॉहिं चित है न चंचल -चितौनन ते चोरिहैं। लोल - लोल-लोयन ते मानस लुभैहैं नॉहिं भौंह हूँ न भाव - साथ कबहूँ मरोरिहैं। 'हरिऔध' नर हैं नकारे तो नकारे रहैं नारि हूँ नरन ते तमाम नातो तोरिहैं। अव चाव साथ वैठि रुचिर - अगारन मैं गोरे गात-वारन को गोरी ना अगोरिहैं ।।२।।