पृष्ठ:रसकलस.djvu/५४६

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३०१ रस निरूपण सच्चे सपूत सवैया- पूत हौं, काहु को दास नहीं अपनो पद् कैसे नहीं पहिचानिहौं । एक पढ़ो लिखो, मूढ़ है दूसरो, कैसे समान दुहूंन को जानिहौं । जो 'हरिऔध' भई मन की नहीं कैसे भला तो नहीं हठ ठानिहीं। बाप के मानन को कहा बात मैं बाप के बाप हूँ को नहिं मानिहीं ॥ १ ॥ कोऊ नवीन नवीनता को तजि कैसे पुरातन - पंथ गहैगो । याको करै परवाह कहा लगि बाप जो वाहि कपूत कहैगो । ए 'हरिऔध' सपूत कहा कर कैसे भला अपमान सहैगो। बात के माने नहीं मन मानिहै बाप के माने न मान रहैगो ।। २ ॥ का कर पूत बड़ो सुखिया जननी जो रहै दुखिया बनि भूखी । वाको भला कबौं कैसे मिले कछु दैव वनाइ दियो जेहि खूखी । बाप के भाग ही को यह भोग है जो नहीं पावत रोटियौ रूखी। जो मुख सूखो न देख्यो गयो कवौं सो सुख बात कहै यदि सूखी ।। ३॥ साहब बहादुर कवित्त- सूट की सनक क्यों न सिर पै सवार होय क्यों न कोट पतलून प्रीति होवै महती। नकटाई कालर गले न परि जाय कैसे टोप बूट-चाट क्यों रहै न रुचि सहती । 'हरिऔध' क्यो न बुरो माने जात पात-चारे क्यों न होवै जनता अनेक बात कहती। साहब हमारे कैसे साहव वनहिं नाहि साहब बने ही जो पै साहिवी है रहती ॥१॥