पृष्ठ:रसकलस.djvu/५४५

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रसकलस ३०० है 'हरिऔध' बने अगुआ पर आग ही के उगिले सुख पावत । हैं सुलगावत देस मैं आग तऊ मुंह मैं नहीं आग लगावत ॥१॥ नाम से काम बड़ी बडी बात बड़े कपटी तऊ उन्नत चेता। चौंकत पातन के खरके पग पूंकि धरै पै बनें जग-जेता। हैं घसे जात धरातल माँहि कहावत लोक मैं ऊरध - रेता । जोरत प्रीति अनीति न छोरत नीति न जानत नाम है नेता ।।२।। सच्चे वीर कवित्त- अपनी अधम-रुचि रुचि-कर-बेलि काँहि बालिका-रुधिर-धार ही सों सदा सींचिहौं । तनिक न हहौं दुखी तिय - तन - तापन ते देखि महा - पापन को नयन, न मीचिहौं । नाम मेरो सुने नाक नरक सिकोरिहै तो यमराज - दंड सौहैं बनिहौं दधीचि हौं । खोलि है जो मुँह तो तुरंत ऐंचि लैहों जीह बोलि है जो बाल-बिधवा तो खाल खींचिहौं ॥१॥ सवैया हैं मिटे जात पै ऑखिन खोलत है बहे जात पं देत हैं खेवा । हैं सग को कबौं बात न पूछत हैं ठग कॉहिं विआवत मेवा । है सनमान बिसासिन-नारि को हैं चली जात रसातल बेवा। देस को सेवक दूसरो कौन है दूसरी कौन है देस की सेवा ।।२।। ऊँची न कैसे रखें अखियाँ बने ऊँच हैं नीचन काँहि चपेटे । औरन को किमि मान करें जब मान मिल्यो मरजाद के मेटे । माहुर हैं पै वने 'मधु • मान हैं, हैं फन सॉप के लपेटे। कैसे न दूर बड़प्पन सौ रहैं, हैं वड़े औ बड़े बाप के बेटे ॥३॥ फूल