३० बिच्छू निकालकर कहता-'क्या डक मरवा दू', तब उसकी नानी मर जातो और वह इतना डर जाता कि 'ओ ओ.' छोड़कर उसके मुह से सीधी वात न निकलती। जब उसकी देह में वह लोहे के कॉटे चुभो देता, या नुकीली छरी या कोई हथियार गड़ा देता, या यह कहता कि यह अगीठी तुम पर उलट दूं, तब वह इतना डर जाता और उसकी घिग्घी ऐसी बंध जाती कि वह मौत को सामने देखने लगता और ऐसी चेष्टा करता कि मानो अब मरा । पर दर्शक उसकी यह दशा देखकर कभी हमते, कभी तालियाँ बजाते, कभी कहते, 'अच्छे से पाला पड़ा।' इसी को कहते हैं, 'इस हाथ दे उस हाथ ले ।' एक ओर भयानक रस का उग्र रूप और दूसरी ओर था मूर्तिमान् श्रानद। यह विपर्यय क्यो ? केवल संस्कार-वश । प्राय देखा जाता है कि जब रगमच पर किसी बड़े अत्याचारी की यातना प्रारम्भ होती है, लहूपिपासितों का लहू बहाया जाता है ओर दूसरों की नाक काटनेवालो की नाक काट ली जाती है, जब देश- हितैपियो के गले पर छुरा चलानेवालो, पेट मे कटार भोंकनेवालों का लहू पान किया जाता है, अथवा देशद्रोहियो का शिर गेंद बनाया जाता है, उनके मास के लोथड़े उछाले जाते हैं, और उनकी अतडी चवाई जाती है तो यह वीभत्स कांड देखकर दर्शक-मडली के रोंगटे नहीं खडे होते और न उनके हृदय मे कुछ दुख ही होता है। वरन् वे जितना छटपटाते हैं, जितना रोते कलपते हैं और जितनी हाय-हाय करते हैं, उतनी ही वह हर्पित होती और उल्लास प्रकट करती है । क्यों ? इसलिये कि नाटककार की लेखनी के कौशल से अत्याचारियो, देश- द्रोहियो और उत्पीडकों के प्रति उनके हृदय मे इतनी घृणा जाग्रत् रहती है कि उनको उनकी नाटकीय यातना देखकर ही सुख मिलता है। दूसरी बात यह कि मनुष्य का सस्कार बडा प्रबल होता है, वही अपनी प्रवृत्ति के अनुकूल उसके हृदय मे सुख-दुःख, घृणा और प्रेम की सृष्टि करता .
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