पृष्ठ:रसकलस.djvu/५५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रसकलस ३१० उदाहरण कवित्त-- समय - सरसता निहारि सरसत जात कूल - अनुकूलता बिलोकि उमहत है। बार बार भरि भरि अमित-उमग माहि तरल - तरंगिनी - तरंग मैं वहत है। 'हरिऔध' लोक-पति-लीला पै लुभानो मन ललकि ललकि भाव लीनता लहत है। बोलत रहत है सलिल-कल-कल मॉहि कला - मयी - केलि मैं कलोलत रहत है ॥ १ ॥ दरति रहति है दुरित के दुरंत - भाव हरति रहति है मन मलिन - मलीनता। करति रहति है अपार - उपकारन को नासति रहति अपकारन की पीनता। 'हरिऔध' मोचति बिलोचन - बिपुल - मल सोचति सदैव सदाचार - समीचीनता । जनम सुधारि सारी धरनी उधारति है धरम - धुरंधर की धरम - धुरीनता ।। २॥ पलित - जटा - कलाप कलित-पताका अहै साध • भरी - साधना के सुदर सदन की । कानन की मुद्रा योग - मुद्रा को सहेलिका है माला कर कंज की क्रिया है मजु-मन की। 'हरिऔध' संत -जन - सहज - उपासना की वोधिनी है पूत - बिमा गैरिक - बसन की।