पृष्ठ:रसकलस.djvu/५६०

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१ रस निरूपण सुचि अनुभूति की प्रसूति है तिलक-रुचि भव की विभूति सी विभूति है वदन की ।।३।। आपदा-सहित सारी अपकारिता निवारि कनक - कनकता को कहत निकाम, ना। वाकी वामता मै अभिरामता - अमित भरि तजत सकामता समेत धन - धाम, ना। 'हरिऔध' होत अविवेकी ना विवेक-वारो रति ते विरति हूँ मैं गहत विराम, ना । सारत है काम सारी-काम-वारी बातन ते राखत न काम-मयी कामिनी की कामना ||४|| मानस मैं सरिता सनेह की है लहरति लोचन मैं लोक - प्रेम - रस निचुरत है। कोमल - बयन मैं लसत है सुधा को सोत चावन को चित - चारुता ते चुपरत 'हरिऔध' भावुकता - भरित - उदार - नर भावन मैं भावना सुहावन भरत है। लहि भूत - हित को प्रभूत - अनुभूत - पोत वनि भाव - पूत भव - सागर तरत है ॥५॥ गमन करत मंद मंद है सु - पथ माँहि अपुनीत - पंथ को न पग परसत है । लोक हित - लोलुपता ललित - अयन - बनि रस वितरन को वयन तरसत है। 'हरिऔध' संत - जन वरद - करन माँहि वसुधा - विमोहिनी - बिभूति दरसत है।