पृष्ठ:रसकलस.djvu/५६६

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रस निरूपण 'हरिऔध' जो न कर्म बीरता धरा मैं होति वारिधि को बॉधिं कैसे बानर उतरते । फिरते विमान-अनगन क्यों गगन मॉहि कैसे नग-निकर नगन ते निकरते ॥१॥ कैसे पार कैसे पृथु प्रथित बनत पृथिवी को दूहि कैसे सातो सागर सगर-सुत सँवारे लेत । करत पवन-पूत पारावार गिरी कर-धारी कैसे गिरिवर धारे लेत । 'हरिऔध' जो न कर्म-बीर की बिरद होति वार वार वीर कैसे बसुधा उबारे लेत । हगन के तारे क्यो सहारे होते साधन के नभ-तल-तारे कैसे मानव उतारे लेत ॥२॥ कैसे मघवा के घन प्रवल विलीन होते व्रज की वसुंधरा विभूति कैसे लहती। करति सजीव क्यो सजीवन सी मूरि मिलि दूर होति कैसे कौसलेस-विथा महती। 'हरिऔध' जो न करतूती-करतूत होति साहसी सपूत की सपूती कैसे रहती। कैसे धूरि-धारा को उधारि या धरातल पै सुर-सरि-धारा सी पुनीत-धारा बहती ।।३।। जल-निधि कैसे दान करत अपार - निधि गाढ़ी कैसे गगन-विभूतिन ते छनती । नाना कल केते लोक-यान क्यों जनम लेते बीजुरी क्यो बिपुल-निराली-जोति जनती ।