पृष्ठ:रसकलस.djvu/५६८

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३१६ रस निरूपण 'हरिऔध' संभव बनावत असंभव को लोक को अलौकिक-बिभूति बितरत है। बूझ - बल नागर करत है अनागर को सूम - बल गागर मैं सागर भरत है ।। ७ ।। तोरि देहै पवि को मरोरि दैहै मेरु - दंड मरुत महान मरु - महि की निवरिहै। दूरि कै प्रखर पवनातप प्रकोप - ताप अवरोधि पावक पयोधि पार परिहै। 'हरिऔध' बाधा परे साध-भरे साधन मै कर्मबीर बाधक - अबाध - गति हरिहै। दरिहै दिगंत - दंति - कुल को दुरंत - दाप प्रबल - प्रहार के पहार चूर करिहै ।।5।। भूरि-भाग-भाजन न भाजत सभीत बनि बहि बहि भारन भरत भव - धाम है। कसि के कमर कौन समर करत नॉहिँ अजर अमर ह्व रखत कुल - नाम है। 'हरिऔध' कर्म - बीर पीछे ना घरत पग बीछे बीछे पथ पै अरत वसु - जाम है। जमदूत - जोरा - जोरी किये हूँ जुरत जात काल हूँ की छोरा-छोरी छोरत न काम है। कैसे मुख-लालिमा रहति लोक-कामना की काम की लगन कृति-कालिमा न खोती जो। कैसे भव - सुख - लाभ - वरु पल्लवित होत बीज-हित -कारिता के बीरता न बोती जो ।