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पृष्ठ:रसकलस.djvu/५७

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३४ और भावों का तिरोभाव हो जाता है। विभावादि जब स्थायी भावों के साथ मिलकर रस-रूप में परिणत होते हैं, उस समय भी केवल रस विकसित रहता है, और सब उसी में लीन हो जाते है, कहा भी है-'अन्यत् सर्वमिव तिरोदधत्' । इसलिये वह ब्रह्मास्वाद सहोदर है, अथवा ब्रह्मास्वाद से उसकी समानता है। २-कुछ विद्वानों का सिद्धात है, 'काव्यस्य शब्दार्थो शरीरं रसादिश्चात्मा' शब्द और अर्थ काव्य के शरीर हैं, और रस आत्मा। साहित्यदर्पण- कार लिखते हैं-'वाक्य रसात्मक काव्यम्' काव्य वह है जिसकी आत्मा रस है, इससे भी उसका ब्रह्म-स्वरूप होना सिद्ध है। ३-अग्निपुराण में लिखा है- अक्षर परम ब्रह्म सनातनमज विभुम् । वेदान्तेषु वदन्त्येक चैतन्य ज्योतिरीश्वरम् ।। आनन्दः सहजस्तस्य व्यज्यते स कदाचन । व्यक्तिः सा तस्य चैतन्यचमत्काररसाह्वया ।। जिसको वेदांत में अक्षर, परब्रह्म, सनातन, अज, व्यापक, चैतन्य और ज्योतिस्वरूप कहा गया है, उसका सहज आनद किसो समय जब प्रकट होता है, तो उस अभिव्यक्ति को चैतन्य, चमत्कार अथवा रस कहा जाता है। ४-नाटको में देखा जाता है कि रस का उद्रेक होने पर एक काल मे सहस्रो मनुष्य मन्त्रमुग्धवत् बन जाते हैं, एक साथ हँसते-रोते और तालियाँ बजाते हैं, आनंद-बनि करते हैं, शर्म-शर्म या थू-थू कहने लगते हैं और कभी-कभी अपने से बाहर हो जाते हैं। यह रस की अलौकिकता है, क्योकि साधारणतया लोक में दो एक प्राणिविशेप में ही उसकी उपस्थिति देखी जाती है। दूसरी बात यह कि वह अपरिमित है, इसलिये कि अनेक श्रोताओं और दर्शको के हृदय में वह एक ही समय में उदित और विकसित होता है।