पृष्ठ:रसकलस.djvu/५७६

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रस निरूपण जो काली - रसना - सरिस होति न वीर - कृपान । रुधिर - पान - रत - नरन को रुधिर करत को पान ।।२२।। बीर - भाव मैं भूति को होतो जो न उभार। तो, को करतो भूत - हित को हरतो भू - भार ।।२३।। परति भार मैं काहि लखि भार - भूत - जन - भीर । उबरति कैसे बसुमती जो न उबारत वीर ॥२४॥ किमि दुरंत - नर दव - दही • महो लहति रस-सोत । जो न वान - धारा - बलित बीर - बारि - धर होत ॥२०॥ लाला प्रानन को परत लहत न कोऊ त्रान । जब दामिनि लौं समर में दमकति बीर - कृपान ||२६|| दयावीर दीन, आर्त और दुःख-दग्ध जन आलंवन, आर्त स्वर, करुण-कन्दन, दुःख- पूर्ण वर्णन और हृदयद्रावी विनय आदि उद्दीपन, मृदु भाषण, उदार आश्वासन, दुःख दूरीकरण चेष्टा आदि अनुभाव, एव चंचलता, उत्कठा और धृति आदि सचारी भाव हैं। दयावीर में चित्तार्द्रता संभूत उत्साह की परिपुष्टि है। कवित्त- ताको सुर-तरु के समान है फलद होत मूठी नाज काज जो तिगूनो तरसत है । 'परम प्रवंचित अकिंचन - कु - धातु कॉर्हि फली - भूत पारस - समान परसत है । 'हरिऔध' दीनन को दीनता तिमिर हरि ससि के समान है सरस सरसत है। चार वार जन - विटपालि पै वरद - वर बारिद - समान वारि - धार बरसत है ॥१॥ .