पृष्ठ:रसकलस.djvu/५८९

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उसकलस ३४० मानव की कहा ह्र हैं कुपित अमानव हूँ खग मृग मीनन की मंडली कॅपावैगी। तरु काल है है फूल फल मैं समैहै सूल दल दलि दैहै बेलि लता कलपावैगी । 'हरिऔध' कहै देस-द्रोही तू न पैहै कल धाई धूरि-धारा असि-धारा सी सतावैगी। भारत के कोटि कोटि कीट काटि काटि खैहैं चींटे चोट कैहैं चींटी तोको चाटि जावेगी ॥ ५ ॥ दिनकर-किरिने करेजो तेरो वेधि दैहैं चद की कलाये तोको गरल पिआइहै। अत तेरो करिहैं दिगंतन के दंति दौरि धूरि मॉहिं तोको धरा-धरहूँ मिलाइहैं । 'हरिऔध' जो तू कुल-लाल है बनेगो काल हिंदुन को तेरे दृग-लाल जो कॅपाइहैं । कारे-कारे-बारि-बाह ते तो पवि-पात ह नभ-तारे तो पै तो अंगारे बरसाइहैं ।। ६ ।। रेति रेति जाति-गरो कौलौं तू मनैहै मोद चेति चेति कौलौं लोक-चित्त-चाव हरिहै । काल बनि वनि काहू कॉहि कलपैहै कौलौं लाल हहै कौलौं तू लहू सों हाथ भरिहै । मानत है काहे 'हरिऔध' की कही ना कर कालिमामयी तू कौलौं मेदिनी को करिहै । कोऊ ज्वाला-मुखी फुटि कैहै टूक टूक तोहि एरे महा-पापी तो पै वन टूटि परिहै ।। ७ ।।