पृष्ठ:रसकलस.djvu/५८८

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३३६ रस निरूपण एड़ी और चोटी को पसीनो करि एक जो तू खोटी है करत क्यों न दॉत कोट कहाँ मैं। रोटी के निमित्त पेट काटि लेत औरन के ऐसी छोटी बातन ते कैसे ना घिनैहौ मैं । 'हरिऔध' तू जो जाति-पीठ की चमोटी बन्यो कैसे तो न बार बार पोटी दूहि लहौं मैं । मोटी-मोटी-बाहै बदी-मोटें जो बनति हैं तो एरे नर तेरी बोटी बोटि काटि देहौं मैं ॥२॥ कमनीय - कामिनी मै कुल मैं कुलीनता मैं कालिमा लगाइ क्यो कलंक मैं सनत है। काहे बहु - आनन के सुनत अनैसे बैन काहें अपकीरत - वितानन तनत है। 'हरिऔध' तोते जो पै हिदू हित होत नाँहि हिदू है कै जो तू जर हिदू की खनत है। काहें करवाल कालिका की ना परति तो पै काहें तो न कालं को कलेवा तू बनत है ।। ३ ।। कोऊ गिरि काहें तेरे सीस पै गिरत नाँहिँ धाक खोइ काहे तू धरा मै ना धेसत है। काहे ना रसातल सिधारत रसा के हिले काहे ना कपालिनी - कुफॉस मै फॅसत है। 'हरिऔध' हिंदू बनि हिंदू - कुल-बाल होइ हिंदू - गरो जो तू जेवरीन ते कसत है। काहें तो प्रचंड - यम - दंड ना लगत तोहि काहे तोको कारो काल - नाग ना डॅसत है ॥४॥