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पृष्ठ:रसकलस.djvu/५९१

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रसकलस ३४२ दोहा- गरल बमत बहकत रहत दहत हरत चित चैन । कैसे लोने नैन मैं राई लोन पर न ॥११॥ कैसे ऐंची जाय नहिं क्यों न बनहि बदनाम । जब चलि जीभ चलावतै रहति चाम के दाम ।।१२।। संत बनेहूँ जो हरत काहू गर को हार । काहे वाके सीस पै टूटि न परत पहार ।।१३।। ते असत हैं सत नहिं क्यों न गहहिं करवाल । जिनकी अखियों लाल ह्व बनहिं लोक-हित काल ॥१४॥ जो भिरि हैं करिहौं उभरि बीर भाव को अत । हौं बैरिन को तोरि हौं सकल - बिखीले - दत ।।१५।। बचि पै है बैरी नहीं परि सौहैं करि सौंह । इरिहै सारी बकता वंक भई मम भौंह ।।१६।।