पृष्ठ:रसकलस.djvu/५९६

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१४७ रस निरूपण पवि - पात भये बिनिपात है है जीवन को प्रलय - प्रबलता ते जनता विलावैगी। 'हरिऔध' प्रखर - प्रभंजन - प्रकोप कीने बिदलित पूरी - पादपावलि दिखावेगी। मिलि जैहै धूरि मैं धरा - धर विधूनित है धारा - धर - धारा मैं वसुंधरा समावैगी ॥शा ज्वाल - माला - बमन सहस-फन-सेस कैहै काल - ज्योति ज्वलित - दिगंतन मैं जगिहै। मदन - दहन को दहन - पटु खुलैगो नैन दाहकता दाहक - त्रिसूल की उमगि है। 'हरिऔध' प्रवल - प्रलय - परिपाक भये लोक-ओक पावक - विपाक - पाक पगि है। परम -प्रचंड - मारतंड उगिलंगो आग अनल - अखंड महि - मंडल मैं लगि है ।।६।। कूदि कूदि उछरि उछरि कै लगैहै आग लाग के लवर - व्योम -व्यापिनी उठावंगो। दाहैगो अनंत - जीव - जंतु - यातुधान-दल बरत-मसाल घर वार को बनावैगो। 'हरिऔध' करिहै दिगंत को दवारि - दुग्ध वसुधा-विभूति को विभूति के दिखावैगो । प्रलय - प्रकोप - पौन - पूत अति वंका-बीर डंका दै दै नाना - लोक-लंका को जराबैंगो ॥७॥ ज्वाल-माल जगे दग्ध ह हैं जगती के जीव घर वार वसन-वितान जैसो वरि है।