३६ तीनों के संयोग से ही एक ऐसे रस की उत्पत्ति होगी, जो अन्य रसो से भिन्न होगा और जिसकी समता दूसरे से न हो सकेगी। रस की कल्पना रस की कल्पना संस्कृत में हुई है, अगरेजी अथवा अरबी-फारसी में इसका पर्यायवाची कोई शब्द नहीं । वास्तव मे परिपुष्ट भाव का ही नाम रस है, इसलिये भाव के पर्यायवाची शब्द ही अन्य भापाओ मे मिलते हैं, अगरेजी मे भाव को 'इमोशन' और फारसी मे 'जजबा' कहते हैं। अभिनय अवलोकन के समय जो तन्मयता दर्शको में देखी जाती है, उसके आधार से ही रस की कल्पना हुई ज्ञात होती है, क्योंकि नाट्यशाब मे हो पहले-पहल इसका नियमबद्ध उल्लेख हुआ है। महामुनि भरत कहते हैं कि 'द्रहिण' नामक किसी आचार्य द्वारा इसका आविष्कार हुआ। वे लिखते हैं-'एते ह्यष्टो रसाः प्रोक्ता दृहिणेन महात्मना' किंतु अग्निपुराण मे उसकी उत्पत्ति इस प्रकार लिखी गई है- अक्षर परम ब्रह्म सनातनमज विभुम् । श्रानन्दः सहजस्तत्य व्यज्यते स कदाचन । व्यक्तिः सा तस्य चैतन्यचमत्काररसाहया।। आद्यत्तस्य विकारो यः सोहकार इति स्मृतः । तताभिमानस्तत्रेद समाप्त भुवननयम् ॥ अभिमानादतिः सा च परिपोषमुपेयुपी। रागाद्भवति शृङ्गारो रौद्रस्तैदण्यात्मजायते ।। वीरोऽवष्टम्भजः सहोचभूबीभत्स इष्यते । शृंगाराजायते हासो रौद्रातु करणो रसः ॥ वीराचाद्भुतनिप्पत्तिः स्याद्वीभत्साभयानक । 'जो अक्षर, परब्रह्म, सनातन, अज और विभु है, उसका सहज आनंद कभी-कभी प्रकट हो जाता है। यह अभिव्यक्ति चैतन्य, चम-
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