४० त्कार और रसमय होती है। उसके आदिम विकार को अहकार कहते हैं, उससे अभिमान (ममता ) की उत्पत्ति दुई, जो भुवन में व्याप्त है। उस अभिमान (ममता) से रति उत्पन्न होकर परिपुष्ट हुई । बाद को राग ( रति) से शृगार की, तीक्ष्णता से रौद्र की, गर्व से वीर की और संकोच से बीभत्स की सृष्टि हुई। फिर शृंगार से हास्य, रौद्र से करुण, वीर से अद्भुत और बीभत्स से भयानक का आविर्भाव हुआ। महामुनि भरत भी पहले चार ग्स की ही उत्पत्ति मानते हैं, और उनसे अन्य रसों की । वे लिखते हैं-'तेषामुत्पत्तिहेतवश्चत्वारो रसाः शृगारो रौद्रो वीरो बीभत्स इति' 'उनके (रसों के) उत्पत्ति के हेतु चार रस हैं- शृगार, रौद्र, वीर और वीभत्स | इनके उपरांत वे यह कहते हैं- शृगाराद्धि भवेद्धास्यो रौद्राच्च करुणो रसः । वीराच्चैवादद्भुतोत्पत्ति भत्साच्च भयानक. ।। शृगारानुकृतिर्यातु स हास्यस्तु प्रकीर्तित. । रौद्रस्यैव च यत्कर्म स ज्ञेयः करुणो रसः ॥ वीरस्यापि च यत्कर्म सोऽद्भुतः परिकीर्तितः । बीमत्सदर्शन यच्च जेयः स तु भयानक. ॥ शृगार से हास्य, रौद्र से करुण, वीर से अद्भुत, और बीभत्स से भयानक की उत्पत्ति हुई । शृगार की अनुकृति हास्य का, रौद्र का कर्म करुण का, वीर का कार्य अद्भुत का और बीभत्स दर्शन भयानक का जनक है। अग्निपुराण में रसो की उत्पत्ति जिस प्रकार दिखलाई गई है, वह बहुत ही स्वाभाविक है । ईश्वर रस म्वरूप है, श्रुतियों में उसको 'रसो वैस', कहा गया है, इमलिये उसको रस का आधार कहना, अथवा उसके द्वारा रम का विकास दिखलाना, वास्तविकता पर प्रकाश डालना है। रस क्या है ? उसके आनद की अभिव्यक्ति है। आनंद का यथार्थ उद्रेक ही रसत्व को प्राप्त होता है। श्रानंद का उपभोग अभाव ही
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