पृष्ठ:रसकलस.djvu/६४

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व्यक्तित्व का आधार है। बिना अहंभाव के व्यक्तित्व अस्तित्व में नहीं आता, अतएव जगदात्मा का आदिम विकार अहंभाव है। यह अहंभाव विश्व में व्याप्त होकर साभिमान हो जाता है, क्योंकि केन्द्रित होने पर उसमे ममत्व या जाता है । ममत्व से ही रति की उत्पति होती है । जब सक किसी वस्तु अथवा व्यक्ति में किसी की ममता न होगी, तबतक उससे उसकी रति (प्रीति) न हो सकेगी। ममता ही प्रीति की जननी है । रति कहिये, चाहे प्रीति कहिये, चाहे प्रेम कहिये वह आनंद कामुक है, वह इस विषय में इतना तन्मय रहता है कि दृष्टिविहीन बनता है। दूसरों को नहीं देखता, अपने ही आनंद मे निमग्न रहता है, यही शृगार रस का रूप है । जब किसी कारण से आनंद-प्रवाह में व्याघात उपस्थित होता है, तो वह कुछ तीखा हो जाता है, उसमे कुछ तीक्ष्णता आ जाती है, उस समय रौद्र रस सामने आता है । रौद्र रस का स्थायी भाव क्रोध है, क्रोध और गर्व का घनिष्ट संबंध है। गर्व होने पर ममत्व व्याघात का सामना करने के लिये उत्साहित होता है, यही वीर रस है। सामना करने के समय ममत्व को यदि अपने अथवा व्याघात- कतीनों के प्रति कारण-विशेप से घृणा उत्पन्न हो जाती है तो वह संकु- चित हो जाता है, यही वीभत्स रस है । ये ही चारो प्रधान रस हैं, जिनके आधार से शेष रसो की उत्पत्ति होती है। अब देखिये, इन चार रसो से अन्य चार रसों की उत्पत्ति कैसे हुई ? महामुनि भरत कहते हैं कि 'शृंगार रस की अनुकृति हाम्य है।' अनुकृति का अर्थ है, अनुकरण, अथवा नकल करना। आप लोग जानते हैं, नकल हँसी की जड़ है। किसी की वेशभूषा, चाल-ढाल, बातचीत श्रादि की नकल जब विनोद के लिये की जाती है, तब उस समय हसी का फन्वारा छूटने लगता है । शृंगार रस की सब बातों की नकल किननी हास्य विनोदमय होगी, इसके बतलाने की आवश्यकता नहीं, हास्य में न्यायिता है। वह श्राफर्पक और व्यापक भी बहुत है.