४८ ने रौद्र का विरोधी शांत को लिखा है, परतु साहित्यदर्पणकार ने यह नहीं लिखा, यद्यपि शात का विरोधी रौद्र को स्वीकार किया है। अद्भुत के विषय में साहित्यदर्पणकार बिल्कुल चुप हैं, किंतु रसगगाधरकार ने उसको शृगार और वीर दोनों का अविरोधी बतलाया है। रसो के विरोध और अविरोध के विषय में यद्यपि इस प्रकार की भिन्नता आचार्यों की सम्मतियों मे देखी जाती हैं, कितु मैं यह कहूँगा कि साहित्यदर्पण की सम्मति बहुत मान्य है, साथ ही अधिकतर निर्दोप और पूर्ण है। रस-परिपाक के लिये आवश्यक है कि दो विरोधी रसो का वर्णन साथ साथ न किया जावे, क्योंकि इसका परिणाम यह होता है कि या तो वे परस्पर एक दूसरे के रस-विकास के बाधक होते हैं, जिससे रस-आस्वादन का आनंद कलुपित हो जाता है। अथवा यदि दोनों सबल हुए, तो सघर्प उपस्थित होने पर दोनो का नाश हो जाता है, जिससे वह उद्देश्य विनष्ट होता है, जिसके लिये उनकी सृष्टि हुई । रस-विरोध का परिहार जब दो विरोधी रस एकत्र आ जावें, तो उस समय विरोध-परिहार का उद्योग करना चाहिये, ऐसा हो जाने पर रस-व्याघात की आशका दूर हो जाती है। विरोध-परिहार कैसे किया जावे, इस विषय मे काव्य- प्रकाश की यह सम्मति है- आश्रयैक्ये विरुद्धो यः स कार्यो भिन्नसश्रय । रसान्तरेणान्तरितो नैरन्तर्मेण यो यो रस. ॥ स्मर्यमाणो विरुद्धोऽपि साम्नाथ विवक्षितः । अङ्गिन्यगत्वमाप्ती यौ तौ न दुष्टौ परस्परम् ।। इन पक्तियो का अर्थ यह हुआ-
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