है। पहली पक्ति में विराग का निरूपण है, दूसरी पंक्ति के अत में माधुरी द्वारा चित्त का हरण होना, शृगार गर्भित है, दोनो परस्पर विरोधी हैं, किन्तु मध्य के 'भुवन-विमोहक' वाक्य ने (जो अद्भुत रस की अवतारणा करता है) दोनो के विरोध का परिहार कर दिया है । भवविरागमूलक शात रस के उपासक के चित्त को कोई माधुरी कदापि आकर्पित नहीं कर सकती, क्योकि विराग और आसक्ति परस्पर विरोधी हैं । परतु जो अद्भुत माधुरी भुवन-विमोहक है, उसका उसके चित्त को हरण कर लेना स्वाभाविक है। इसीलिये उसके द्वारा शात और श्रृंगार के विरोध का परिहार हुआ। दूसरे नियम का यही वक्तव्य था । अब तीसरे नियम का उदाहरण लीजिये- सोहै, रुधिर भरो परो महि में सहि-सहि वार । कौं कान्तकर जो हुतौ कलित कठ को हार || किसी वीर रसिकशिरोमणि की भुजा को रुधिर भरी पृथ्वी पर पडी. देखकर एक सहृदय का यह कथन है। उसकी भुजा को इस बुरी दशा में पाकर वह समय याद आ गया, जब वह सुदरी ललनाओं के कम- नीय कठो में पड़ा रहकर किसी अपूर्व गजरे की शोभा धारण करता होगा, अतएव उसका शोक बढ गया और उसके हृदय का भाव दोहे के रूप में परिणत हुआ। यहाँ स्पष्ट शृगार, करुण रस का सहायक है, वाधक नही, इसीलिये यह स्वीकार किया गया है कि स्मरण किये गये विरोधी रस से विरोध का परिहार हो जाता है। चौथे नियम का उदाहरण यह है- काल विमुखता का कहीं मुख न कहत वर वैन । रस वरसन पावत नहीं रस बरसनपटु नैन ॥ यह एक प्रेमिक की उक्ति है, वह अपनी स्वर्गगता प्रेमिका के शरीर को सामने पडा देखकर भग्नहृदय है और प्रेम का उद्रेक होने से, अपने हृदय की वेदना को व्यथामय शब्दों में वर्णन कर रहा है। यहाँ प्रत्यक्ष
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